नारद भक्तिसुत्र - 10
*प्रेम की अभिव्यक्ति*
मन की हर चंचलता भक्ति की तलाश है और भक्ति ही ऐसा ठहराव ला सकती है मन में,चेतना मे। और भक्ति प्रेम रूप है। प्रेम जानते है, भक्ति को खोजते हैं । प्रेम की पराकाष्ठा भक्ति है। और यह भक्ति विश्राम में उपलब्ध है, काम में नहीं। महर्षि नारद कहते हैं-
*निरोधस्तु लोक वेद व्यापारन्यासः*।।
सब तरह के काम से विश्राम पाओ। विश्राम में राम हैं।दुनियादारी के काम छ़ोडते हैं,फिर कर्मकांड में उलझ जाते हैं। कई बार ऐसा होता है आप कर्मकांड तो करते हैं, पर मन उसमें लगता ही नहीं है। और सोचते रहते है कब यह खत्म होगा। हाथ में माला फेर रहे हैं-"कब इसको खत्म करें, कब उठें" इस भाव से या लालसा से। भय से पूजापाठ करते हैं-किसी ने डरा दिया ऐसा हो जायेगा- मंगल या शनि का दोष हो जायेगा, कुछ बुरा हो जायेगा, धंधा नहीं चलेगा।आप हनुमानजी के मंदिर के चक्कर लगाने लगते हैं, इसलिए नहीं कि हनुमानजी से इतना प्रेम हो गया -दृष्टि तो धंधे पर अटकी हुई है- और दुकान को लेकर ही मंदिर जाते है। घर की समस्याओं को लेकर मंदिर जाते हैं और लेकर ही वापस आते हैं।छ़ोडकर वापस नही आते। छ़ोडे कैसे? प्रेम हो तभी न छोडें। भय से, या लोभ से, हम पूजापाठ करते हैं, कर्मकांड में उलझते हैं। यह भक्ति नहीं हुई,यह तो प्रेम नहीं हुआ।
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