नारद भक्ति सूत्र - 11
*प्रेम की अभिव्यक्ति*
यह भक्ति नहीं हुई,यह तो प्रेम नहीं हुआ।आदमी थक जाता है। तथाकथित धार्मिक लोगों के चेहरे को देखिए - थके-हारे, उत्साह नहीं है, दुःख से भरे हुए हैं। भगवान आन्द स्वरूप हैं, सच्चिदानन्द, उसकी एक झलक नहीं होनी चाहिये क्या? उसके साथ जुड़ जाने से अपने भीतर उस गुण का प्रकाश होना है कि नहीं होना है? यह स्वाभाविक है। मगर हम धर्म के नाम से बडे़ उदास चेहरे दिखाते हैं।
दुनिया दुःख रूप है, मगर तुम भी दुःख रूप हो जाते हो और इसको समझते हो धर्म।यह गलत धारणा है। विश्राम पाओ। भक्त वही है जो यह नहीं सोचता कल मेरा क्या होगा ? अरे, जब मालिक अपने हैं तो कल की क्या बात है ? जब मालिक हमारा है तो तिजोरी की क्या बात हैं?
अगला सूत्र -
*तस्मिन्ननन्यता तद्विरोधिषूदासीनता च*।।
तस्मिन् अनन्यता। उसमें अनन्यता।वह अलग, मैं अलग-इस तरह से सोचने से प्रेम हो नहीं सकता। यह हो ही नहीं सकता। _तस्मिन् अनन्यता_। वह मुझसे अलग नहीं है।
जैसे आपके बच्चों को कोई डाँट दे तो आप उसको डाँटने लगते हैं। आपको तो डाँट नहीं पडी़। किसीने आपके बच्चों के साथ ठीक व्यवहार नहीं किया हो, तो आप उस बात को अपने ऊपर ले लेते हैं।क्यों? मैं और मेरा बच्चा कोई अलग़ थोडे ही है। जिससे प्रेम हो जाता है उससे भेद भी कट जाता है। प्रेम हुआ माने भेद मिटा और जब तक भेद नहीं मिटता तब तक प्रेम होता नहीं है।अपनापन हो, आत्मियता
हो, इतनी आत्मियता हो, तब ही मन ठहरता हैं। हम जो पसंद कर लेते हैं तब फि़र मन भटकता नहीं है। जब टेलीविज़न के सामने बहुत देर तक बैंठते हैं तो उसमें तल्लिन हो जाते हैं। अकेले बैठकर थोडी़ देर ध्यान में बैठो - तो यहाँ दर्द, वहाँ दर्द, उधर बेचैनी, मन दुनियाभर मेन भागता है। क्यों ? हमने पसंद नहीं किया, प्रेम नहीं किया, अपने आप से प्रेम नहीं किया। जब खुद से , नफ़रत से भर जाते हैं तो खुद के प्रति भी और दुसरें के प्रति भी नफ़रत ही करते हैं।खुद के साथ जब प्रेम होता है, औरों के साथ भी प्रेम होता है। खुद के साथ प्रेम हो कैसे, जब खुद में इतना दोष दिखता है? तब उस दोष को समर्पण कर दो। समर्पित होने पर अनन्यता होती है। अनन्य होने पर समर्पित हो जाते हैं। यह एक दुसरे से मिले हुए हैं।
_तस्मिन् अनन्यता तद्विरोध_। उदासिनता । उसके विरोध में कुछ भी हो, उसके प्रति उदासीन हो जाओ।अधिक ध्यान नहीं देना।कर्मकांड में नेम-निष्ठा बहुत है,प्रेम में कोई नियम नहीं।
*अन्याश्रयाणाम् त्यागोअनन्यता*।।
जीवन में प्रेम बढे़, उसके लिए अनन्यभाव की आवश्यकता है। अपनापन महसूस करना।चाहे दुसरज करें या न करें, अपनी तरफ से उनको अपना मान लिया। जब संशय करते हैं कि दूसरे व्यक्ति हमसे प्रेम करते हैं कि नहीं, तब खुद का प्रेम भी कुंठित हो जाता है। हम भी प्रेम नहीं कर पाते, हमेशा परखते रहते हैं कि व्यक्ति हमसे प्रेम करते हैं कि नहीं। चाहे वे करें या न करें, अपनी तरफ से मान लो वे भी हमसे बहुत प्रेम कर रहे हैं । वे भी हमको बहुत चाहते हैं। इस तरह से हम आगे बढ़ पाते हैं, भक्ति की तरफ।
जय गुरूदेव
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