प्रेम की पराकाष्ठा - Isha Vidya

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Friday, July 20, 2018

प्रेम की पराकाष्ठा

*।।नारद भक्तिसुत्र - 6

*प्रेम की पराकाष्ठा*
      
*🌴कल से आगे🌴*

भक्ति उस वर्तमान क्षण की बात है। कहते हैं, *न किञ्चिद वाञ्छति* भविष्यकाल के बारे में ये चाहिए,वो चाहिए.....यें नहीं। न शोचति। भूतकाल को लेकर अफ़सोस नहीं करते। हम हर बात पर अफसोस करने लगते हैं, नाराज होते रहते हैं पुरानी बातो को लेकर, वर्तमान क्षण को भी खराब करतें है, भविष्यकाल का तो कहना ही क्या। *न किञ्चिद वाञ्छति न शोचति, न द्वेष्टि*- जब हम लगातार चाह करते रहते हैं और अफ़सोस करते हैं तो इसका तिसरा भाई है द्वेष-वह इनके पीछे-पीछे आ जाता है, तीसरा भागीदार। हम खुद की वृत्तियों को देखकर खुद से नफ़रत करने लगते है;द्वेष। मगर भक्ति के पाने से क्या होता है ? *न द्वेष्ट* - द्वेष मिट जाता है जीवन में,  तुम कर ही नहीं सकोगे द्वेष। मन में एक हलका सा द्वेष का धुँआ भी उठे तो एकदम असह्य हो जाता है, क्षण भर भी उसको सहन नहीं कर पायेंगे। जब क्षण भर किसी चीज़ को सहन नहीं कर पाते है तब हम उसका  त्याग कर देते हैं।यह हो जाता है, अपने आप। न खुद से नफ़रत, न किसी और से नफ़रत। वह नफ़रत का बीज ही नष्ट हो जाता है। *न किञ्चिद वाञ्छति,नशोचति,न द्वेष्टि,न रमते, नोत्साही भवति*। जिसको पाकर कभी चाह में, या अफ़सोस में, या द्वेष में मग्न न हो जाना, मानो रम न जाना। यहाँ बताया, रमते माने जिसमें रमण  कर ले। यह और सूक्ष्म है। प्रेम में भी रमण अधिक करने लगते हैं, तब भी हम होश खो देते हैं, प्रेम को खो देते हैं। देखो, अकसर जो लोग खुश रहते हैं न, वही लोग दूसरों को परेशानी में डाल देते हैं। वे खुशी में होश खो देते हैं और बेहोश आदमी से गलती ही होगी। वह कुछ भी करेगा उसमें कोई भूल होगी ही। यह अकसर होता है। पार्टियों में जो लोग बहुत खुश रहते हैं उनको इतनी समझ नहीं कि वे क्या बोल रहे हैं, क्या कर रहे हैं;कुछ बोल पडते हैं, कर बैठते हैंं जिससे दूसरों के दिल में चोट लग जाती है। इसलिए रमण भी नहीं करते।और उत्साहित नहीं होते। *यह शब्द ज़रा चौकानेवाला है*। क्या? भक्ति माने जिसमें उत्साह नहीं है,वह भक्ति? भक्त उत्साहित नहीं होगा? उत्साह तो जीवन का लक्षण है, निरुत्साह  नहीं है। इसको हम लोगों ने गलत समझा है।खास तौर से इस देश में  जब किसी धर्म की बात होती है, या ध्यान, सत्संग भजन, किर्तन होता है, लोग बहुत गंभीर बैठे रहते हैं, क्यों? उत्साहित नहीं होना चाहिए, खुशी व्यक्त नहीं करते। गंभीरता, निरुत्साह -यही है क्या भक्ति का लक्षण? नहीं।यहाँ जो बताया है न, न उत्साही भवति माने एक उत्साह या उत्सुकता में ज्वरित।  उत्साह में क्या है, अकसर एक ज्वर है, फलाकाँक्षा है। दो तरह का उत्साह है- एक उत्साह जिसमें हम फलाकाँक्षी रहते हैं, माने-'क्या होगा, क्या होगा, कैसे होगा, यह हो जाएगा कि नहीं'- इस तरह का ज्वर होता है भीतर। दूसरी तरह का उत्साह हैं जिसमें आनंद या जीवन ऊर्जा को अभिव्यक्त करते हैं। यहाँ जो *नोत्साही भवति* बताया है नारद ऋषि ने,उस तरह के उत्साह को ऊन्होंने
नकारा जिस उत्साह में ज्वर है, फलाकाँक्षा है।

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