योग के अनुशासन - 2 - Isha Vidya

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Thursday, July 26, 2018

योग के अनुशासन - 2

पतंजलि योग सूत्र
प्रथम चरण
योग के अनुशासन - 2

यह उसी प्रकार है जैसे कि मधुमेह रोग से पीड़ित व्यक्ति को तुमने कहते सुना होगा कि मैं शक्कर नही खाता अथवा जिसे अधिक कोलेस्ट्रॉल की शिकायत हो, वह कहता है कि मैंने कोलेस्ट्रॉल का सेवन न करने का व्रत लिया है क्योंकि खाते समय तो वह आनन्द प्रदान करता है परंतु इसका परिणाम अत्यंत घातक होता है अर्थात इसका फल दुःखदायी है। एक विशेष अनुशासन के उपरान्त जो आनंद होता है वही चिरस्थायी एवं सात्विक आंनद को देने वाला है। आंनद; जो आरंभ में हर्ष प्रदान करें परन्तु अंत दुःखदायी हो, वह सच्चा आंनद नही हो सकता। वास्तविक  सात्विक आंनद को प्राप्त करने के लिए अनुशासन की अत्यंत आवश्यकता है। अनुशासन का उद्देश्य ही है की तुम्हे प्रसन्नता प्राप्त हो। अन्तर को समझो। कई बार अनुशासन लगाने पर स्वयं को व किसी अन्य को तनिक भी प्रसन्नता नही मिलती। यह तामसिक है। आंनद तीन प्रकार का होता है। जब प्रारंभ में कोई आंनद न हो पर अंत में प्रसन्नता की प्राप्ति हो, इसे सात्विक आंनद कहते हैं। राजसिक आंनद में, आरंभ अत्यंत आकर्षक एवं आंनददायक जान पड़ता है किंतु अंत दुःखदायी होता है। तामसिक आंनद आरंभ से अंत तक दुःखदायी है। तामसिक आंनद में किसी अनुशासन के पालन की आवश्यकता नहीं है, अर्थात् अनुशासन का अभाव ही तामसिक आंनद है। त्रुटिपूर्ण अनुशासन, राजसिक आंनद का परिचायक है। अब आता है सात्विक आंनद - इसकी प्राप्ति के लिए सच्चे अनुशासन की आवश्यकता होती है। जिन नियमों के पालन में कठिनाई जान पड़े, वही तो अनुशासन है। यह आवश्यक नहीं की अनुशासन सदा ही अप्रिय हो, परन्तु कठोर नियमों का पालन करके, उन्हें सह कर निकल आना - यही तो अनुशासन का महात्म्य है। तभी पतंजलि ने कहा "अभी, इसी क्षण !" इसी क्षण अर्थात् कब? जब जीवन स्पष्ट रूप से समझ में न आता हो। जब तुम्हारा हृदय सही स्थान पर न हो तभी। "योगानुशासनम्"। 

जय गुरुदेव 

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