"पर्यावरण के साथ हमारा संबंध"
प्राचीन ज्ञान के मुताबिक मनुष्य के अनुभव में ५ परतें आती हैं, जो कि हैं – पर्यावरण, शरीर, मन, अंतर्ज्ञान और आत्मा।
पर्यावरण के साथ हमारा संबंध हमारे अनुभव की सर्वप्रथम और सब से महत्वपूर्ण परत है। अगर हमारा पर्यावरण स्वच्छ और सकरात्मक है तो हमारे अनुभव की बाकी सभी परतों पर इसका सकरात्मक प्रभाव पड़ता है, और वे संतुलित हो जाती हैं और हम अपने और अपने जीवन में आये व्यक्तियों के साथ अधिक शांति और जुड़ाव महसूस करते हैं।
मनुष्य की मानसिकता के साथ पर्यावरण का एक नज़दीकी रिश्ता है। प्राचीन समय की सभ्यताओं में प्रकृति को सम्मान के भाव से देखा गया है - पहाड़, नदियां, वृक्ष, सूर्य, चँद्र...। जब हम प्रकृति और अपनी आत्मा के साथ अपने संबंध से दूर जाने लगते हैं, तब हम पर्यावरण को प्रदूषित करने लगते हैं और पर्यावरण का नाश करने लगते हैं। हमे उस प्राचीन व्यवस्था को पुनर्जीवित करना होगा जिससे की प्रकृति के साथ हमारा संबध सुदृढ़ बनता है।
आज के जगत में ऐसे कई व्यक्ति हैं जो कि लालचवश, जल्द मुनाफ़ा और जल्द नतीजे प्राप्त करना चाहते हैं। उनके कृत्य जगत के पर्यावरण को नुक्सान पँहुचाते हैं। केवल बाहरी पर्यावरण ही नहीं, वे सूक्ष्म रूप से अपने भीतर और अपने आस पास के लोगों में नकरात्मक भावनाओं का प्रदूषण भी फैलाते हैं। ये नकरात्मक भावनायें फैलते फैलते जगत में हिंसा और दुख का कारण बनती हैं।
अधिकतर युद्ध और संघर्ष इन्हीं भावनाओं से ही शुरु होते हैं। जिसके परिणाम में पर्यावरण को नुक्सान होता है, और उसे स्वस्थ करने में बहुत समय लगता है। हमें मनुष्य के मानसिकता पर ध्यान देने की आवश्यकता है। यह मानसिकता ही प्रदूषण की जड़ है - स्थूल तथा भावनात्मक। अगर हमारे भीतर करुणा और परवाह जग जाते हैं, तो वे आधार बनते हैं एक गहरे संबंध का जिस में कि हम पर्यावरण की और व्यक्तियों की देखभाल करते हैं।
प्राचीन समय में अगर एक व्यक्ति एक वृक्ष काटता था तो साथ ही ५ नये वृक्ष लगाता था। प्राचीन समय में लोग पवित्र नदियों में कपड़े नहीं धोते थे। केवल शरीर के अग्नि-संस्कार के बाद बची हुई राख को नदी में बहाते थे ताकि सब कुछ प्रकृति में वापिस लय हो जाये। हमें प्रकृति और पर्यावरण को सम्मान और सुरक्षा के भाव से देखने वाली प्राचीन प्रणालियों को पुनर्जीवित करना होगा।
प्रकृति के पास संतुलन बनाये रखने के अपने तरीके हैं। प्रकृति को ध्यान से देखो तो तुम पाओगे कि जो पंचतत्व इसका आधार हैं, उनका मूल स्वभाव एक दूसरे के विरोधात्मक है। जल अग्नि का नाश करता है। अग्नि वायु का नाश करती है...। और प्रकृति में कई प्रजातियां हैं - पक्षी, सरीसृप, स्तनधारी...। भिन्न प्रजातियां एक दूसरे से वैर रखती हैं, फिर भी प्रकृति एक संतुलन बना कर रखती है। प्रकृति से हमे ये सीखने की आवश्यकता है कि अपने भीतर, अपने परिवेश में और जगत में विरोधी शक्तियों का संतुलन कैसे बनाये रखें।
सबसे अधिक आवश्यक है कि हमारा मन तनाव मुक्त हो और हम इस खुले मन से जगत का अनुभव कर सकें। ऐसी मनस्थिति से हम इस सुंदर पृथ्वी का संरक्षण करने के उपाय बना सकेंगे। आध्यात्म से हमे अपने असल स्वभाव का अनुभव होता है और खुद से और अपने परिवेश से एक जुड़ाव का एहसास होता है। अपने असल स्वभाव के साथ परिचय होने पर नकारात्मक भावनायें मिट जाती हैं, चेतना ऊर्ध्वगामी होती है और पूरी पृथ्वी की देखभाल के लिये एक दृढ़ संकल्प उपजता है।
- गुरुदेव श्री श्री रवि शंकरजी
जय गुरुदेव
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