भगवान की प्राप्ति-३
इसीलिए 'शिक्षा' ('यह क्या है' का ज्ञान) आवश्यकताओं व इच्छाओं को उभारती है जबकि 'दीक्षा' ('मैं कौन हूँ' का ज्ञान) आपकी इच्छाओं पर विराम लगाती है। एक व्यक्ति जितनी मात्रा में 'शिक्षा' ग्रहण करता है, उतनी ही मात्रा में उसके भीतर इच्छायें उभरती हैं। इसीलिए बुद्धिमान व्यक्ति, अनपढ़ व्यक्ति के मुकाबले अधिक दुखी रहते हैं।
अगर तुम किसी बेहद भीतरी ग्रामीण क्षेत्र में जाओ, तो तुम पाओगे कि लोगों ने वहाँ रेल भी नहीं देखी है। क्योंकि उन्होंने रेल को नहीं देखा है तो उनके भीतर उसमें सफर करने की इच्छा भी नहीं है। वो केवल २-३ तरह के बिस्कुटों के बारे में जानते हैं जो कि उनके गांव में बिकते हैं। पर अगर तुम किसी शहर के डिपार्टमेंटल स्टोर में जाओ तो तुम्हें वहाँ बिस्कुटों की ५० से भी अधिक किस्में मिल जाएंगी। यह ५० तरह के बिस्कुटों को खाने की इच्छा को जन्म दे देगा।
कोई भी व्यक्ति जितनी अधिक शिक्षा (सूचना) ग्रहण करेगा उतनी ही अधिक इच्छायें उसके भीतर उठेंगी। उदाहरण के लिए मान लो कोई तुम्हें बताता है कि कैसियो की एक नयी घड़ी आयी है जो कि तुम्हें यह याद दिलाएगी कि कब खाना है और क्या खाना है। जिस क्षण में तुम्हें यह पता चलता है, उसी क्षण उसे प्राप्त करने की इच्छा भी तुम्हारे भीतर उठ जाती है।
तुम यह सूचना सुनकर या देखकर प्राप्त करते हो। और दीक्षा, सुनना और देखना बंद करके प्राप्त की जाती है। शिक्षा एक निश्चित आयु तक आवश्यक है। शिक्षा और दीक्षा एक दूसरे के पूर्णतया विपरीत हैं पर दोनों तुम्हारे जीवन में बहुत आवश्यक है।
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