*🌹पतंजलि योग सूत्र🌹*
*🍀🍀चतुर्थ चरण🍀*
*🌿 ईश्वर कौन है?🌿*
🌹🌹3⃣🌹🌹
(2) अस्मिता :-
इसका अर्थ है। मैं-मैं, मेरा-मेरा मुझे! दुःख का दूसरा कारण यही है। इसी कारण हम HOLLOW AND EMPTY नामक ध्यान कराते हैं इसके करने से यह "मैं" समाप्त हो जाता है। तुम्हारा अस्तित्व होते हुए भी नहीं है। जब तुम इस भाव में जाते हो तब एक पुष्प,बादल, आकाश तत्व, रिक्त व मुक्त की भाँति जीते हो।
लोग मुझसे क्या चाहते हैं? मैं दूसरों से क्या अपेक्षा करता हूँ? किस प्रकार मैं उनसे लाभ उठाऊँ? वे मुझे अच्छा व्यक्ति समझते हैं या बुरा? मैं और मुझसे संबंधित ये सारे प्रश्न अस्मिता कहलाते हैं। ये दुःख के कारण है। मैं और मेरा से संबंधित ये सब विचारों के अतिरिक्त ऐसा कुछ भी नहीं है जो तुम्हे दुःख दे सके। अस्तित्व के साथ एकाकार न हो पाने से एवं अलगाव का भाव कि मैं दूसरों से भिन्न हूँ। मेरे अतिरिक्त सभी मूर्ख है, एक मात्र मैं ही बुद्धिमान हूँ। ये सभी विचार अस्मिता में आते हैं। सच तो यह है कि ऐसा सोचने वाले मनुष्य हॄदय की गहराई से जानते हैं कि वे स्वयं वज्र मुर्ख है। संभवतः इसी लिए दूसरों को विक्षिप्त एवं बुद्धिहीन समझने लगते हैं। यह अहंकार विनाश का मूल है और तुम्हारे दुःखो का कारण है।
अस्मिता के अतिरिक्त राग, द्वेष, एवं अभिनिवेश दुःख के कारण है। राग में किसी वस्तु के प्रति अति की आसक्ति और द्वेष का अर्थ है घृणा। अभिनिवेश का अर्थ है भय। अतः राग, द्वेष,भय अस्मिता एवं अज्ञान ये ही दुःख के पाँच कारण है और ईश्वरत्व उन पाँचो कलेशों से मुक्त है। गहराई में निहित तुम्हारी चेतना भी इन पाँचो दुःखों से रहित है। ऊपरी सतह पर तुम वस्तुओं की चाह करते हो किंतु गहराई में जाने पर ज्ञात होगा कि तुम राग रहित हो। ऊपरी तौर पर तुम दूसरों से घृणा कर सकते हो परंतु भीतर घृणा भाव नही होता। भय एवं घृणा के भाव मात्र परिधि तक ही सिमित रहते हैं। तुम्हारा अन्तस इनसे मुक्त है। यहाँ पर अज्ञान और अलगाव का नितांत अभाव है। जब तुम्हारा बाहरी परिवेश इन पाँचो कलेशों से मुक्त होता है तब तुम्हारी अन्तस चेतना उत्कृष्ट एवं प्रकट होकर खिल जाती है और तुम्हारे अंदर का देवत्व अभिव्यक्त होता है। अतः भगवान वह पुरुष विशेष है, जो इन पाँचो कलेशों से मुक्त है और वह कर्म प्रभाव से भी मुक्त है। कर्म चार प्रकार के होते हैं। पहले प्रकार के कर्म वे है जो पुण्य प्रदान करते हैं। दूसरों का भला करने से उन्हें ख़ुशी मिलती है और वह हॄदय से धन्यवाद देते हैं। ऐसे कर्म को पुण्य कर्म कहते हैं। दूसरों को कष्ट पहूँचाने वाले कर्म जिनसे उन्हें दुःख प्राप्त हो, वे पाप कर्म कहलाते हैं। कुछ ऐसे कर्म भी होते हैं जो पाप और पुण्य दोनों के मिश्रण होते हैं ये तीसरे प्रकार के कर्म है। चौथी श्रेणी में वे कर्म आते हैं जो पाप एवं पुण्य दोनों से रहित है। उदाहरण के तौर पर शाम को टहलने जाना, कमरे की सफाई करना आदि कर्म पाप और पुण्य दोनों से रहित है। ये सामान्य कृत्य है परंतु किसी की सहायता करने की भावना से किया गया कार्य जैसे रसोई के काम में हाथ बँटाना आदि पुण्य की श्रेणी में आते हैं। अतः कर्म चार प्रकार के हुए। पुण्य कर्म, पाप कर्म, मिश्रित परिणाम देने वाले कर्म एवं निष्प्रभावी कर्म।
तुम्हारा अस्तित्व का बीज अर्थात तुम्हारा अन्तः करण इन सभी कर्मो से रहित है। वह कर्म विहीन है। ईश्वर द्वारा प्रदत्त कार्य कर्म बंधन से मुक्त है। वहाँ शुभ-अशुभ सही-गलत कुछ नहीं होता।
जय गुरुदेव
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