योग वशिष्ठ - 22
(३४) आत्मज्ञान केवल विचार से होता है। वह न तप से सिद्ध होता है न अध्ययन से, न गुरु से होता है ,न पुस्तकों से।
(३५) सबसे पहले शास्त्रों के श्रवण से, सज्जनों के सत्संग से और परम वैराग्य से मन को पवित्र करो।
(३६) शास्त्राध्ययन , सज्जनों के संग और शुभ-कर्मों के करने से जिसके पाप दूर हो गए हैं , उसकी बुद्धि दीपक की लौ के समान चमकने वाली होकर सार वस्तु को पहचानने योग्य हो जाती है।
(३७) आत्म-ज्ञान केवल स्वयं विचार करने से होता है।
(३८) आत्म दर्शन न शास्त्र द्वारा होता है और न गुरु द्वारा। आत्मा ही के द्वारा शुद्ध बुद्धि से आत्मा देखी जाती है।
(३९) शम, संतोष, साधु-संग और विचार ये मोक्ष के चार द्वारपाल है जो मोक्ष रुपी राजमहल का दरवाजा खोल देते हैं।
(४०) सज्जनों का संग इस लोक में सन्मार्ग का दिखानेवाला और हृदय के अंधकार को दूर करनेवाले ज्ञानरूपी सूर्य का प्रकाश है।
(४१)जिस प्रकार अपने अनुभव बिना शक्कर की मिठास नहीं जान सकते , उसी प्रकार स्वानुभूति बिना आत्मा का स्वरुप नहीं जाना जा सकता।
(४२) शास्त्र और गुरु आत्मा का दर्शन नहीं करा सकते। उसका दर्शन तो केवल अपनेआप ही स्वस्थ बुद्धि द्वारा होता है।
(४३) ज्ञान की सात भूमिकाएँ हैं-
(a) शास्त्रों व् सज्जनों की संगति,
(b) विचारणा,
(c) असंग भावना,
(d) विलापनी,
(e) आनंदरूपा,
(f) स्व-संवेदनरूपा,
(g) परिप्रौढा।
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