नारद भक्तिसुत्र - 4
प्रेम की पराकाष्ठा
.......और इन सब प्रेम को अपने में समेटकर पूर्ण रूप से जो निकली है जीवनी ऊर्जा, जीवनी शक्ति, वही प्रेम है *सा त्वस्मिन परमप्रेमरूपा*।
अक्सर कया होता है, प्रेम तो होता है हमें, किंतु वह प्रेम बहुत शीध्र विकृत हो जाता है। उसकी मौत हो जाती है। प्रेम जहाँ ईर्ष्या बनी तो प्रेम की मौत हो गई वहाँ पर। ईर्ष्या में बदल गया वह प्रेम।जहाँ प्रेम लोभ हुआ तो वहाँ प्रेम खत्म़ हो गया, वह प्रेम ही द्वेष बन गया। प्रेम हमारे जीवन में हंमेशा मरणशील रहा हैं, इसीलिये ही समस्या है।
*आप किसी से भी पूछो-"आप अपने लिए जी रहे हो क्या"?*
*कहेंगे," नहीं,नहीं।हम अपने मातापिता के लिये जी रहे हैं, पति-पत्नि के लिये जी रहे हैं*"।
पत्नी से पूछो,"तुम किसके लिए जी रही हो"?
वह कहेगी"अरे मुझे क्या चाहिए ? मैं तो अपने पति, अपने बच्चों के लिए जी रही हूँ"।
बच्चों से पूछो, "हम माँ-बाप के लिए जी रहे हैं। *फिर भी कोई नहीं जी रहा है*। इतना कोलाहल, इतनी परेशानी, इतनी बैचेनी जीवन में क्यों?
प्रेम की मौत हो गई। मगर परमप्रेम का स्वरूप क्या है, तब कहते हैं नारद महर्षि-
*अमृतस्वरूपा च।।*
भक्ति ऐसा प्रेम है जिसकी कभी मृत्यु नहीं, जो कभी मरता नहीं है, दिन-प्रतिदिन उसकी वृद्धि होती है। *सा त्वस्मिन परमप्रेमरूपा, अमृतस्वरूपा च*।
जो कभी मरती नहीं, उस भक्ति को जानने से क्या होगा?
*यल्लब्ध्वा पुमान् सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति*।।
भक्ति पाकर क्या करोगे तुम जीवन में? इससे क्या होता है? तब कहते हैं *सिद्धो भवति*। कोई कमी नहीं रह जायेगी तुम्हारे जीवन में।भक्तों के जीवन में कोई कमी नहीं होती। किसी भी चीज़ की कमी नहीं होती , किसी भी गुण की कमी नहीं होती। सिद्धो, अमृतो भवति- जो अमृतत्व को जान लिया, उसके जीवन में अमृतत्व फलप गया।जब हम क्रोधित होते हैं, तब हम एकदम क्रोध में हो जाते हैं और जब खुश होते हैं तब वह खुशी हमारे में छा जाती है। हम कहते हैं न'खुशी से भर गये'। इसी तरह अमृतत्व को जानते ही, भक्ति को जानते ही लगता है 'मैं तो शरीर नहीं हूँ, मैं तो कुछ और ही हूँ। मैं वही हूँ। मेरी कभी मृत्यु हुई ही नहीं, और न ही होगी"।
*जब मन सिमटकर अपने आप में डूब गया तब जो रहा वह गगन जैसी विशाल हमारी सत्ता।* कभी गगन की मृत्यु देखी है, सुनी है? मृत्यु शब्द ही मिट्टी के साथ जुडा़ हुआ है। मिट्टी परिवर्तनशील है, आकाश नहीं। मन पानी के साथ जुडा़ हुआ है, जैसे पानी बहता है वैसे ही मन भी बहता है। आज के विज्ञान से यस बात सिद्ध हुई है कि शरीर में 98% आकाश तत्व है, जो बचा हुआ दो प्रतिशत है उसमें 60% पानी है, जल तत्व है।मृण्मय शरीर मौत के आधिन है मगर चेतना अमर है।
प्रेम चमडा़ है या चेतना?
क्या है प्रेम?
यदि प्रेम सिर्फ मिट्टी होता तो वह अमृतत्त्व में नहीं ले जा सकता, भक्ति तक नहीं पहुँचा सकता। परम प्रेम जो है वह अमृतस्वरूप है, वही तुम्हारा स्वरूप है। सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति -तृप्त हो जाओ।
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