प्रेम की पराकाष्ठा - Isha Vidya

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Saturday, July 14, 2018

प्रेम की पराकाष्ठा

नारद भक्तिसुत्र - 7

यहाँ जो नोत्साही भवति बताया है नारद ऋषि ने,उस तरह के उत्साह को ऊन्होंने नकारा जिस उत्साह में ज्वर है, फलाकाँक्षा है।

फिर अगले सूत्र में कहते है- यत् ज्ञात्वा मत्तो भवति, स्तब्धो भवति, आत्मारामो भवति।।

यत्त ज्ञात्वा जिसको जानने से मत्तो भवति उन्मत अवस्था हो।स्तब्धो भवति- स्तब्धता छा जाएगी; स्तब्ध -ठहराव, जीवन में एक ठहराव आ जाता है, मन में एक ठहराव आता है, व्यक्तित्व में ठहराव आ जाए-यह भक्ति का लक्षण है।चंचलता मिट जाए , स्थिरता की प्राप्ति हो। मत्तो भवति - intoxicated जिसको कहते हैं न, नशे में, भक्ति का नशा ऐसा है जिसके बराबर और कोई नशा नहीं। प्रेम का नशा सबसे बुरा है। यह ऐसा नशा है जो तुम्हें सारी दुनिया को भुला देता है।यत्त ज्ञात्वा। जिसको जानने से- यहाँ एक फ़र्क है। जिसको पाना और उसको जानना-दो अलग चीज़ है। पा लेना आसान है मगर जानना कठिन है, सो जाना आसान है मगर नींद के बारे में जानना बहुत कठिन है। प्रेम करना आसान है मगर प्रेम को समझना अति कठिन है।मगर एक बार समझ जाएँ, समझने का साधन है, उस साधन में ही ऐसे डूब जाएँ, जिससे तुम समझते हो, समझने लगे हो, वही शान्त हो जायेगा। वही पिघल जाएगा। तभी मस्त हो सकते हो, उन्मत्त हो सकते हो। उन्मत्त माने क्या? जहाँ बुद्धि पिघल गई ।बुद्धि का पिघलना इतना आसान नहीं है। जब भी आदमी बुद्धि से परेशान होता है तभी पीकर उसको पिघलाने की कोशिश करता है। वह होता तो नहीं है, थोडे़ समय के लिए हो जाओ उन्मत्त; नशे में,मगर वह एक स्थाई स्थिति तो नहीं है। मगर भक्ति में स्थाई स्थिति का उद्गम होता है। मत्तो भवति,मत्त; एक नशा।उस नशे के साथसाथ ठहराव। अकसर जो व्यक्ति नशे में होता है उसमें ठहराव नहीं होता, अस्थिर रहता है।स्थिरता भी रहे और उन्मत्तता भी हो, यह एक विशेष अवस्था है। यह भक्ति से ही संभव है।और कोई चारा ही नहीं। मत्तो भवति, स्तब्धो भवति, आत्मारामो भवति। फिर वह अपनी आत्मा में रमण करता है। आत्मा में रमण करना, आत्मारामो भवति।

शब्द तो बहुत सुना है, आत्माराम,आत्मा में रमण करो, अपनी आत्मा में ठहर जाओ, आत्मा तुम हो, निश्चय करो-यह आत्मा है क्या? कई लोग कहते हैं मेरी आत्मा ऐसे निकल कर बाहर आ गई, मैंने देख लिया। यह देखनेवाला कौन होता है, आत्मा को देखने वाला? आत्मा की आत्मा है?  तुमने अपनी आत्मा को देख लिया,उड़ता हुआ ऊपर छत पर? " मेरी आत्मा निकल गई ऐसे, ज्योति रूप में, मैं वहाँ देखता रहा..........आत्मदर्शन.......यह क्या है??? उसका कोई रंग है, लाल है,पीला है? यह बडी भूल है। जिससे तुम जानते हो, वही आत्मा है। जिसमें जानने की शक्ति  है,वही आत्मा है। आकाश कहीं और दूर नहीं है-हम समझते हैं आकाश वहाँ  ऊपर है। आकाश ऊपर है तो यहाँ क्या है? तुम कहाँ हो? जहाँ तुम हो ,वहीं आकाश है। तुम आकाश में ही टिके हो।यह पृथ्वी भी आकाश में ही तो है।आकाश के बाहर कुछ है ,क्या? शरीर के भीतर आत्मा नहीं है, आत्मा के भीतर शरीर है।हमारा स
थूल शरीर जितना है ,उससे दस गुणा अधिक सूक्ष्म शरीर है और उससे भी हजार गुणा अधिक है कारण शरीर ।कहते है न पाँच कोष है-एक शरीर ,फिर प्राणमय कोष, फिर मनोमय कोष। तुम अपने अनुभव से देखो न-शरीर और प्राणमय, शरीर की जो प्राण शक्ति है, ऊर्जा है, यह शरीर, सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर से भी बडा़ है। मनोमय कोष -विचार का जो हमारा शरीर है, वह इससे भी बडा़ ;भावनात्मक शरीर उससे भी बडा़ है।और आनंदमय कोष जिसको हम कहते हैं, वह अनन्त है,व्याप्त है,सब जगह व्याप्त।हम जब भी खुश रहते हैं ,आनंद में रहते हैं,उस वक्त शरीर का कोई भान नहीं रहता।

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